मेरे घर की लक्ष्मी….

 

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मेरे घर की लक्ष्मी….

एक धनाढय सेठ था, पर था बड़ा कंजूस स्वभाव का। दान-पुण्य के लिए तो उसका हाथ कभी खुलता ही न था। उसके घर जो पुत्रवधू आयी वह बड़े कुलीन और सत्संगी घराने की थी। घर के संस्कारी माहौल और सत्संग में जाने के कारण बचपन से ही उसके स्वभाव में बड़े-बुजर्गों की सेवा, साधु-संतों का स्वागत-सत्कार, सत्संग सुनना, दान-दक्षिणा देना आदि उच्च संस्कार आत्मसात् हो गये थे। वह व्यर्थ खर्च के तो खिलाफ थी परंतु अच्छे कार्यों में, लोक-मांगल्य के कार्यों में पैसे खर्चने में हिचक नहीं रखनी चाहिए, ऐसी उसकी ऊँची मति थी। ससुरजी की कंजूसी भरी रीति-नीति उसे पसंद न आयी। वह प्रयत्नशील रहती कि ससुर जी का लोभी-लालची मन उदार व परोपकारी बने।

एक दिन सेठजी घर पर ही थे। बहू पड़ोसन से बातें कर रही थी। पड़ोसन ने पूछाः “क्यों बहना ! आज खाने में क्या-क्या बनाया था ?”

तब बहू ने कहाः “बहन ! आज कहाँ रसोई बनायी, हमने तो खाया बासी और बन गये उपवासी।”

बहू के ये शब्द ससुरजी के कानों में पड़े तो वे चौंके और अपनी पत्नी पर बिगड़ पड़े कि “ठीक है, मैं कंजूस हूँ, परंतु इसका मतलब यह नहीं है कि मेरी समाज में कोई इज्जत ही नहीं है। तुमने बहू को बासी अन्न खिला दिया। अब वह तो सारे मुहल्ले में मेरी कंजूसी का ढिंढोरा पीट रही है।”

सेठानी ने कहाः “मैंने कभी बहू को बासी खाना दिया ही नहीं है। मैं इतनी मूर्ख नहीं हूँ कि इतना भी न जानूँ।” सेठ ने बहू को बुलाकर पूछाः “बेटी ! तुमने तो आज ताजा भोजन किया है। फिर पड़ोसन से झूठ क्यों कहा कि खाया बासी और बन गये उपवासी ?”

“ससुर जी ! मैंने झूठ नहीं कहा बल्कि सौ प्रतिशत सत्य कहा है।”

बुद्धिमान बहू ने नम्रतापूर्ण स्वर में मैं सत्य समझाते हुए कहाः “जरा सोचिये, ससुर जी ! आज हमारे पर धन-दौलत है, जिससे हम खूब सुख-सुविधाओं में आनंद से रह रहे हैं। यह वास्तव में हमारे पूर्वजन्म के पुण्य कर्मों का ही फल है। इसलिए आज हम जो सुख भोग रहे हैं, वह सब बासी आहार के समान है अर्थात् हम बासी खा रहे हैं और जो धन हमें मिला है उससे दान, पुण्य, धर्म या परोपकार के कार्य तो कर नहीं रहे हैं। अतः अगले जन्म के लिए तो हमने कुछ पुण्य-पूँजी सँजोयी नहीं है। इसलिए अगले जन्म में हमें उपवास करना पड़ेगा। अब आप ही बताइये, क्या मेरा वचन सत्य नहीं है ?”

बहू की युक्तिपूर्ण सुंदर सीख सुनकर सेठ की बुद्धि पर से लोभ का पर्दा हट गया, सदज्ञान का प्रकाश हुआ और वे गदगद स्वर से बोलेः “मैं धन्य हुआ जो तुझ जैसी सत्संगी की सुपुत्री मेरे घर की लक्ष्मी बनी। बेटी ! तूने आज मुझे जीवन जीने की सही राह दिखायी है।”

फिर तो सेठ जी ने दान-पुण्य की ऐसी सरिता प्रवाहित की कि दान का औदार्य-सुख, आत्मसंतोष, उज्जवल भविष्य और परोपकारिता का मंगलमय सुस्वभाव उन्हें प्राप्त हो गया, जिसके आगे धन-संग्रह एवं सुख-सुविधा का बाह्य सुख उन्हें तुच्छ लगने लगा। परोपकार से प्राप्त होने वाली आंतरिक प्रसन्नता और प्रभुप्राप्ति ही सार है यह उनकी समझ में आ गया।

 

रानी कलावती

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रानी कलावती

‘स्कन्द पुराण’ के ब्रह्मोत्तर खंड में कथा आती है कि ‘काशीनरेश की कन्या कलावती के साथ मथुरा के दाशार्ह नामक राजा का विवाह हुआ। विवाह के बाद राजा ने रानी को अपने पलंग पर बुलाया लेकिन उसने इन्कार कर दिया। तब राजा ने बल प्रयोग की धमकी दी। रानी ने कहाः “स्त्री के साथ संसार-व्यवहार करना हो तो बलप्रयोग नहीं, स्नेह प्रयोग करना चाहिए। नाथ ! मैं भले आपकी रानी हूँ, लेकिन आप मेरे साथ बलप्रयोग करके संसार-व्यवहार न करें।”

लेकिन वह राजा था। रानी की बात सुनी-अनसुनी करके नजदीक गया। ज्यों ही उसने रानी का स्पर्श किया, त्यों ही उसे विद्युत जैसा करंट लगा। उसका स्पर्श करते ही राजा का अंग-अंग जलने लगा। वह दूर हटा और बोलाः “क्या बात है? तुम इतनी सुन्दर और कोमल हो फिर भी तुम्हारे शरीर के स्पर्श से मुझे जलन होने लगी?”

रानीः “नाथ ! मैंने बाल्यकाल में दुर्वासा ऋषि से शिवमंत्र लिया था। उसे जपने से मेरी सात्त्विक ऊर्जा का विकास हुआ है, इसीलिए मैं आपके नजदीक नहीं आती थी। जैसे अंधेरी रात और दोपहर एक साथ नहीं रहते, वैसे ही आपने शराब पीनेवाली वेश्याओं के साथ और कुलटाओं के साथ जो संसार-भोग भोगे हैं उससे आपके पाप के कण आपके शरीर, मन तथा बुद्धि में अधिक हैं और मैंने जप किया है उसके कारण मेरे शरीर में ओज, तेज व आध्यात्मिक कण अधिक हैं। इसीलिए मैं आपसे थोड़ी दूर रहकर प्रार्थना करती थी। आप बुद्धिमान हैं, बलवान हैं, यशस्वी हैं और धर्म की बात भी आपने सुन रखी है, लेकिन आपने शराब पीनेवाली वेश्याओं और कुलटाओं के साथ भोग भी भोगे हैं।”

राजाः “तुम्हें इस बात का पता कैसे चल गया?”

रानीः “नाथ ! हृदय शुद्ध होता है तो यह ख्याल आ जाता है।”

राजा प्रभावित हुआ और रानी से बोलाः “तुम मुझे भी भगवान शिव का वह मंत्र दे दो।”

रानीः “आप मेरे पति हैं, मैं आपकी गुरु नहीं बन सकती। आप और हम गर्गाचार्य महाराज के पास चलें।”

दोनों गर्गाचार्य के पास गये एवं उनसे प्रार्थना की। गर्गाचार्य ने उन्हें स्नान आदि से पवित्र होने के लिए कहा और यमुना तट पर अपने शिवस्वरूप के ध्यान में बैठकर उन्हें निगाह से पावन किया, फिर शिवमंत्र देकर शांभवी दीक्षा से राजा के ऊपर शक्तिपात किया।

कथा कहती है कि देखते ही देखते राजा के शरीर से कोटि-कोटि कौए निकल-निकल कर पलायन करने लगे। काले कौए अर्थात् तुच्छ परमाणु। काले कर्मों के तुच्छ परमाणु करोड़ों की संख्या में सूक्ष्मदृष्टि के द्रष्टाओं द्वारा देखे गये। सच्चे संतों के चरणों में बैठकर दीक्षा लेने वाले सभी साधकों को इस प्रकार के लाभ होते ही हैं। मन, बुद्धि में पड़े हुए तुच्छ कुसंस्कार भी मिटते हैं। आत्म-परमात्मप्राप्ति की योग्यता भी निखरती है। व्यक्तिगत जीवन में सुख शांति, सामाजिक जीवन में सम्मान मिलता है तथा मन-बुद्धि में सुहावने संस्कार भी पड़ते हैं और भी अनगिनत लाभ होते हैं जो निगुरे, मनमुख लोगों की कल्पना में भी नहीं आ सकते। मंत्रदीक्षा के प्रभाव से हमारे पाँचों शरीरों के कुसंस्कार व काले कर्मों के परमाणु क्षीण होते जाते हैं। थोड़ी ही देर में राजा निर्भार हो गया एवं भीतर के सुख से भर गया।

शुभ-अशुभ, हानिकारक एवं सहायक जीवाणु हमारे शरीर में रहते हैं। जैसे पानी का गिलास होंठ पर रखकर वापस लायें तो उस पर लाखों जीवाणु पाये जाते हैं यह वैज्ञानिक अभी बोलते हैं। लेकिन शास्त्रों ने तो लाखों वर्ष पहले ही कह दियाः

सुमति-कुमति सबके उर रहहिं।

जब आपके अंदर अच्छे विचार रहते हैं तब आप अच्छे काम करते हैं और जब भी हलके विचार आ जाते हैं तो आप न चाहते हुए भी गलत कर बैठते हैं। गलत करने वाला कई बार अच्छा भी करता है तो मानना पड़ेगा कि मनुष्य-शरीर पुण्य और पाप का मिश्रण है। आपका अंतःकरण शुभ और अशुभ का मिश्रण है। जब आप लापरवाह होते हैं तो अशुभ बढ़ जाते हैं अतः पुरुषार्थ यह करना है कि अशुभ क्षीण होता जाय और शुभ पराकाष्ठा तक परमात्म-प्राप्ति तक पहुँच जाय।

 

सती सावित्री

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सती सावित्री

जब यमराज सत्यवान (सावित्री के पति) के प्राणों को अपने पाश में बाँध ले चले, तब सावित्री भी उनके पीछे-पीछे चलने लगी। उसे अपने पीछे आते देखकर यमराज ने उसे वापस लौट जाने के लिए कई बार कहा किंतु सावित्री चलती ही रही एवं अपनी धर्मचर्चा से उसने यमराज को प्रसन्न कर लिया।

सावित्री बोलीः “सत्पुरुषों का संग एक बार भी मिल जाये तो वह अभीष्ट की पूर्ति कराने वाला होता है और यदि उनसे प्रेम हो जाये तो फिर कहना ही क्या? संत-समागम कभी निष्फल नहीं जाता। अतः सदा सत्पुरुषों के साथ ही रहना चाहिए।

देव ! आप सारी प्रजा का नियमन करने वाले हैं, अतः ‘यम’ कहलाते हैं। मैंने सुना है कि मन, वचन और कर्म द्वारा किसी भी प्राणी के प्रति द्रोह न करके सब पर समान रूप से दया करना और दान देना श्रेष्ठ पुरुषों का सनातन धर्म है। यों तो संसार के सभी लोग सामान्यतः कोमलता का बर्ताव करते हैं किंतु जो श्रेष्ठ पुरुष हैं, वे अपने पास आये हुए शत्रु पर भी दया ही करते हैं।”

यमराजः “कल्याणी ! जैसे प्यासे को पानी मिलने से तृप्ति होती है, उसी प्रकार तेरी धर्मानुकूल बातें सुनकर मुझे प्रसन्नता होती है।”

सावित्रि ने आगे कहाः “विवस्वान (सूर्यदेव) के पुत्र होने के नाते आपको ‘वैवस्वत’ कहते हैं। आप शत्रु-मित्र आदि के भेद को भुलाकर सबके प्रति समान रूप से न्याय करते हैं और आप’धर्मराज’ कहलाते हैं। अच्छे मनुष्यों को सत्य पर जैसा विश्वास होता है, वैसा अपने पर भी नहीं होता। अतएव वे सत्य में ही अधिक अनुराग रखते हैं विश्वास की सौहार्द का कारण है तथा सौहार्द ही विश्वास का। सत्पुरुषों का भाव सबसे अधिक होता है, इसलिए उन पर सभी विश्वास करते हैं।”

यमराजः “सावित्री ! तूने जो बातें कही हैं वैसी बातें मैंने और किसी के मुँह से नहीं सुनी हैं। अतः मेरी प्रसन्नता और भी बढ़ गयी है। अच्छा, अब तू बहुत दूर चली आयी है। जा, लौट जा।”

फिर भी सावित्री ने अपनी धार्मिक चर्चा बंद नहीं की। वह कहती गयीः “सत्पुरुषों का मन सदा धर्म में ही लगा रहता है। सत्पुरुषों का समागम कभी व्यर्थ नहीं जाता। संतों से कभी किसी को भय नहीं होता। सत्पुरुष सत्य के बल से सूर्य को भी अपने समीप बुला लेते हैं। वे ही अपने प्रभाव से पृथ्वी को धारण करते हैं। भूत भविष्य का आधार भी वे ही हैं। उनके बीच में रहकर श्रेष्ठ पुरुषों को कभी खेद नहीं होता। दूसरों की भलाई करना सनातन सदाचार है, ऐसा मानकर सत्पुरुष प्रत्युपकार की आशा न रखते हुए सदा परोपकार में ही लगा रहते हैं।”

सावित्री की बातें सुनकर यमराज द्रवीभूत हो गये और बोलेः “पतिव्रते ! तेरी ये धर्मानुकूल बातें गंभीर अर्थ से युक्त एवं मेरे मन को लुभाने वाली हैं। तू ज्यों-ज्यों ऐसी बातें सुनाती जाती है, त्यों-त्यों तेरे प्रति मेरा स्नेह बढ़ता जाता है। अतः तू मुझसे कोई अनुपम वरदान माँग ले।”

सावित्रीः “भगवन् ! अब तो आप सत्यवान के जीवन का ही वरदान दीजिए। इससे आपके ही सत्य और धर्म की रक्षा होगी। पति के बिना तो मैं सुख, स्वर्ग, लक्ष्मी तथा जीवन की भी इच्छा नहीं रखती।”

धर्मराज वचनबद्ध हो चुके थे। उन्होंने सत्यवान को मृत्युपाश से मुक्त कर दिया और उसे चार सौ वर्षों की नवीन आयु प्रदान की। सत्यवान के पिता द्युमत्सेन की नेत्रज्योति लौट आयी एवं उन्हें अपना खोया हुआ राज्य भी वापस मिल गया। सावित्री के पिता को भी समय पाकर सौ संताने हुईं एवं सावित्री ने भी अपने पति सत्यवान के साथ धर्मपूर्वक जीवन-यापन करते हुए राज्य-सुख भोगा।

इस प्रकार सती सावित्री ने अपने पातिव्रत्य के प्रताप से पति को तो मृत्यु के मुख से लौटाया ही, साथ ही पति के एवं अपने पिता के कुल, दोनों की अभिवृद्धि में भी वह सहायक बनी।

जिस दिन सती सावित्री ने अपने तप के प्रभाव से यमराज के हाथ में पड़े हुए पति सत्यवान को छुड़ाया था, वही दिन ‘वट सावित्री पूर्णिमा’ के रूप में आज भी मनाया जाता है। इस दिन सौभाग्यशाली स्त्रियाँ अपने सुहाग की रक्षा के लिए वट वृक्ष की पूजा करती हैं एवं व्रत-उपवास आदि रखती हैं।

कैसी रहीं हैं भारत की आदर्श नारियाँ ! अपने पति को मृत्यु के मुख से लौटाने में यमराज से भी धर्मचर्चा करने का सामर्थ्य रहा है भारत की देवियों में। सावित्री की दिव्य गाथा यही संदेश देती है कि हे भारत की देवियों ! तुममें अथाह सामर्थ्य है, अथाह शक्ति है। संतों-महापुरुषों के सत्संग में जाकर तुम अपनी छुपी हुई शक्ति को जाग्रत करके अवश्य महान बन सकती हो एवं सावित्री-मीरा-मदालसा की याद को पुनः ताजा कर सकती हो।

 

वास्तविक सौन्दर्य

 

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वास्तविक सौन्दर्य

सौन्दर्य सबके जीवन की माँग है। वास्तविक सौन्दर्य उसे नहीं कहते जो आकर चला जाये। जो कभी क्षीण हो जाये, नष्ट हो जाये वह सौन्दर्य नहीं है। संसारी लोग जिसे सौन्दर्य बोलते हैं वह हाड़-मांस का सौन्दर्य तब तक अच्छा लगता है जब तक मन में विकार होता है अथवा तो तब तक अच्छा लगता है जब तक बाहरी रूप-रंग अच्छा होता है। फिर तो लोग उससे भी मुँह मोड़ लेते हैं। किसी व्यक्ति या वस्तु का सौन्दर्य हमेशा टिक नहीं सकता और परम सौन्दर्यस्वरूप परमात्मा का सौन्दर्य कभी मिट नहीं सकता।

एक राजकुमारी थी। वह सुन्दर, संयमी एवं सदाचारी थी तथा सदग्रन्थों का पठन भी करती थी। उस राजकुमारी की निजी सेवा में एक विधवा दासी रखी गयी थी। उस दासी के साथ राजकुमारी दासी जैसा नहीं बल्कि वृद्धा माँ जैसा व्यवहार करती थी।

एक दिन किसी कारणवशात् उस दासी का 20-22 साल का युवान पुत्र राजमहल में अपनी माँ के पास आया। वहाँ उसने राजकुमारी को भी देखा। राजकुमारी भी करीब 18-21 साल की थी। सुन्दरता तो मानों, उसमें कूट-कूट कर भरी थी। राजकुमारी का ऐसा सौन्दर्य देखकर दासीपुत्र अत्यंत मोहित हो गया। वह कामपीड़ित होकर वापस लौटा।

जब दासी अपने घर गयी तो देखा कि अपना पुत्र मुँह लटकाये बैठा है। दासी के बहुत पूछने पर लड़का बोलाः “मेरी शादी तुम उस राजकुमारी के साथ करवा दो।”

दासीः “तेरी मति तो नहीं मारी गयी?  कहाँ तू विधवा दासी का पुत्र और कहाँ वह राजकुमारी? राजा को पता चलेगा तो तुझे फाँसी पर लटका देंगे।”

लड़काः “वह सब मैं नहीं जानता। जब तक मेरी शादी राजकुमारी के साथ नहीं होगी, तब तक मैं अन्न का एक दाना भी खाऊँगा।”

उसने कमस खाली। एक दिन… दो दिन… तीन दिन…. ऐसा करते-करते पाँच दिन बीत गये। उसने न कुछ खाया, न कुछ पिया। दासी समझाते-समझाते थक गयी। बेचारी का एक ही सहारा था। पति तो जवानी में ही चल बसा था और एक-एक करके दो पुत्र भी मर गये थे। बस, यह ही लड़का था, वह भी ऐसी हठ लेकर बैठ गया।

समझदार राजकुमारी ने भाँप लिया कि दासी उदास-उदास रहती है। जरूर उसे कोई परेशानी सता रही है। राजकुमारी ने दासी से पूछाः “सच बताओ, क्या बात है? आजकल तुम बड़ी खोयी-खोयी-सी रहती हो?”

दासीः “राजकुमारीजी ! यदि मैं आपको मेरी व्यथा बता दूँ तो आप मुझे और मेरे बेटे को राज्य से बाहर निकलवा देंगी।”

ऐसा कहकर दासी फूट-फूटकर रोने लगी।

राजकुमारीः “मैं तुम्हें वचन देती हूँ। तुम्हें और तुम्हारे बेटे को कोई सजा नहीं दूँगी। अब तो बताओ !”

दासीः “आपको देखकर मेरा लड़का अनधिकारी माँग करता है कि शादी करूँगा तो इस सुन्दरी  से ही करूँगा और जब तक शादी नहीं होती तब तक भोजन नहीं करूँगा। आज पाँच दिन से उसने खाना-पीना छोड़ रखा है। मैं तो समझा-समझाकर थक गयी।”

राजकुमारीः “चिन्ता मत करो। तुम कल उसको मेरे पास भेज देना। मैं उसकी वास्तविक शादी करवा दूँगी।”

लड़का खुश होकर पहुँच गया राजकुमारी से मिलने। राजकुमारी ने उससे कहाः “मुझसे शादी करना चाहता है?”

“जी हाँ।”

“आखिर किस वजह से?”

“तुम्हारे मोहक सौन्दर्य को देखकर मैं घायल हो गया हूँ।”

“अच्छा ! तो तू मेरे सौन्दर्य की वजह से मुझसे शादी करना चाहता है? यदि मैं तुझे 80-90 प्रतिशत सौन्दर्य दे दूँ तो तुझे तृप्ति होगी? 10 प्रतिशत सौन्दर्य मेरे पास रह जायेगा तो तुझे तृप्ति होगी? 10 प्रतिशत सौन्दर्य मेरे पास रह जायेगा तो तुझे चलेगा न?”

“हाँ, चलेगा।”

“ठीक है…. तो कल दोपहर को आ जाना।”

राजकुमारी ने रात को जमालगोटे का जुलाब ले लिया जिससे रात्रि को दो बजे जुलाब के कारण हाजत तीव्र हो गयी। पूरे पेट की सफाई करके सारा कचरा बाहर। राजकुमारी ने सुन्दर नक्काशीदार कुण्डे में अपने पेट का वह कचरा डाल दिया। कुछ समय बाद उसे फिर से हाजत हुई तो इस बार जरीकाम और मलमल से सुसज्जित कुंडे में राजकुमारी ने कचरा उतार दिया। दोनों कुंडों को चारपाई के एक-एक पाये के पास रख दिया। उसके बाद फिर से एक बार जमालघोटे का जुलाब ले लिया। तीसरा दस्त तीसरे कुण्डे में किया। बाकी का थोड़ा-बहुत जो बचा हुआ मल था, विष्ठा थी उसे चौथी बार में चौथे कुंडे में निकाल दिया। इन दो कुंडों को भी चारपाई के दो पायों के पास में रख दिया।

एक ही रात  जमालगोटे के कारण राजकुमारी का चेहरा उतर गया, शरीर खोखला सा हो गया। राजकुमारी की आँखें उतर गयीं, गालों की लाली उड़ गयी, शरीर एकदम कमजोर पड़ गया।

दूसरे दिन दोपहर को वह लड़का खुश होता हुआ राजमहल में आया और अपनी माँ से पूछने लगाः “कहाँ है राजकुमारी जी?”

दासीः “वह सोयी है चारपाई पर।”

राजकुमारी के नजदीक जाने से उसका उतरा हुआ मुँह देखकर दासीपुत्र को आशंका हुई। ठीक से देखा तो चौंक पड़ा और बोलाः

“अरे ! तुम्हें या क्या हो गया? तुम्हारा चेहरा इतना फीका क्यों पड़ गया है? तुम्हारा सौन्दर्य कहाँ चला गया?”

राजकुमारी ने बहुत धीमी आवाज में कहाः “मैंने तुझे कहा था न कि मैं तुझे अपना 90 प्रतिशत सौन्दर्य दूँगी, अतः मैंने सौन्दर्य निकालकर रखा है।”

“कहाँ है?” आखिर तो दासीपुत्र था, बुद्धि मोटी थी।

“इस चारपाई के पास चार कुंडे हैं। पहले कुंडे में 50 प्रतिशत, दूसरे में 25 प्रतिशत सौन्दर्य दूँगी, अतः मैंने सौन्दर्य निकालकर रखा है।”

“कहाँ है?” आखिर तो दासीपुत्र था, बुद्धि मोटी थी।

“इस चारपाई के पास चार कुंडे हैं। पहले कुंडे में 50 प्रतिशत, दूसरे में 25 प्रतिशत तीसरे कुंडे में 10 प्रतिशत और चौथे में 5-6 प्रतिशत सौन्दर्य आ चुका है।”

“मेरा सौन्दर्य है। रात्रि के दो बजे से सँभालकर कर रखा है।”

दासीपुत्र हैरान हो गया। वह कुछ समझ नहीं पा रहा था। राजकुमारी ने दासी पुत्र का विवेक जागृत हो इस प्रकार उसे समझाते हुए कहाः “जैसे सुशोभित कुंडे में विष्ठा है ऐसे ही चमड़े से ढँके हुए इस शरीर में यही सब कचरा भरा हुआ है। हाड़-मांस के जिस शरीर में तुम्हें सौन्दर्य नज़र आ रहा था, उसे एक जमालगोटा ही नष्ट कर डालता है। मल-मूत्र से भरे इस शरीर का जो सौन्दर्य है, वह वास्तविक सौन्दर्य नहीं है लेकिन इस मल-मूत्रादि को भी सौन्दर्य का रूप देने वाला वह परमात्मा ही वास्तव में सबसे सुन्दर है भैया ! तू उस सौन्दर्यवान परमात्मा को पाने के लिए आगे बढ़। इस शरीर में क्या रखा है?”

दासीपुत्र की आँखें खुल गयीं। राजकुमारी को गुरु मानकर और माँ को प्रणाम करके वह सच्चे सौन्दर्य की खोज में निकल पड़ा। आत्म-अमृत को पीने वाले संतों के द्वार पर रहा और परम सौन्दर्य को प्राप्त करके जीवनमुक्त हो गया।

कुछ समय बाद वही भूतपूर्व दासी पुत्र घूमता-घामता अपने नगर की ओर आया और सरिता किनारे एक झोंपड़ी बनाकर रहने लगा। खराब बातें फैलाना बहुत आसान है किंतु अच्छी बातें, सत्संग की बातें बहुत परिश्रम और सत्य माँग लेती है। नगर में कोई हीरो या हीरोइन आती है तो हवा की लहर के साथ समाचार पूरे नगर में फैल जाता है लेकिन एक साधु, एक संत अपने नगर में आये हुए हैं, ऐसे समाचार किसी को जल्दी नहीं मिलते।

दासीपुत्र में से महापुरुष बने हुए उन संत के बारे में भी शुरुआत में किसी को पता नहीं चला परंतु बाद में धीरे-धीरे बात फैलने लगी। बात फैलते-फैलते राजदरबार तक पहुँची कि ‘नगर में कोई बड़े महात्मा पधारे हुए हैं। उनकी निगाहों में दिव्य आकर्षण है, उनके दर्शन से लोगों को शांति मिलती है।’

राजा ने यह बात राजकुमारी से कही। राजा तो अपने राजकाज में ही व्यस्त रहा लेकिन राजकुमारी आध्यात्मिक थी। दासी को साथ में लेकर वह महात्मा के दर्शन करने गयी।

पुष्प-चंदन आदि लेकर राजकुमारी वहाँ पहुँची। दासीपुत्र को घर छोड़े 4-5 वर्ष बीत गये थे, वेश बदल गया था, समझ बदल चुकी थी, इस कारण लोग तो उन महात्मा को नहीं जान पाये लेकिन राजकुमारी भी नहीं पहचान पायी। जैसे ही राजकुमारी महात्मा को प्रणाम करने गयी कि अचानक वे महात्मा राजकुमारी को पहचान गये। जल्दी से नीचे आकर उन्होंने स्वयं राजकुमारी के चरणों में गिरकर दंडवत् प्रणाम किया।

राजकुमारीः “अरे, अरे…. यह आप क्या रहे हैं महाराज !”

“देवी ! आप ही मेरी प्रथम गुरु हैं। मैं तो आपके हाड़-मांस के सौन्दर्य के पीछे पड़ा था लेकिन इस हाड़-मांस को भी सौन्दर्य प्रदान करने वाले परम सौन्दर्यवान परमात्मा को पाने की प्रेरणा आप ही ने तो मुझे दी थी। इसलिए आप मेरी प्रथम गुरु हैं। जिन्होंने मुझे योगादि सिखाया वे गुरु बाद के। मैं आपका खूब-खूब आभारी हूँ।”

यह सुनकर वह दासी बोल उठीः “मेरा बेटा !”

तब राजकुमारी ने कहाः “अब यह तुम्हारा बेटा नहीं, परमात्मा का बेटा हो गया है…. परमात्म-स्वरूप हो गया है।”

धन्य हैं वे लोग जो बाह्य रूप से सुन्दर दिखने वाले इस शरीर की वास्तविक स्थिति और नश्वरता का ख्याल करके परम सुन्दर परमात्मा के मार्ग पर चल पड़ते हैं…..

 

भारतीय समाज में नारी का गौरवपूर्ण स्थान !

maa bharati shri ji

भारतीय समाज में नारी का गौरवपूर्ण स्थान !

यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता।

‘जिस कुल में स्त्रियों का आदर है वहाँ देवता प्रसन्न रहते हैं।’

इस प्रकार शास्त्रों में नारी की महिमा  बतायी गयी है। भारतीय समाज में नारी का एक विशिष्ट व गौरवपूर्ण स्थान है। वह भोग्य नहीं है बल्कि पुरुष को भी शिक्षा देने योग्य चरित्र बरत सकती है। अगर वह अपने चरित्र और साधना में दृढ़ तथा उत्साही बन जाय तो अपने माता, पिता, पति, सास और श्वसुर की भी उद्धारक हो सकती है।

धर्म (आचारसंहिता) की स्थापना भले आचार्यों ने की, पर उसे सँभाले रखना, विस्तारित करना और बच्चों में उसके संस्कारों का सिंचन करना इन सबका श्रेय नारी को जाता है। भारतीय संस्कृति ने स्त्री को माता के रूप में स्वीकार करके यह बात प्रसिद्ध की है कि नारी पुरुष के कामोपभोग की सामग्री नहीं बल्कि वंदनीय, पूजनीय है।

 

क्षण का भी प्रमाद मृत्यु है

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हे चैतन्य देव ! तू इस विस्तृत जगत को दीर्घ काल से चला आता मत समझ। तू ऐसा ख्याल मत कर बैठना कि, ‘मेरा पूर्व जन्म था और वहाँ किये हुए पाप पुण्यों के फलस्वरूप यह वर्त्तमान जन्म हुआ है और इस वर्त्तमान जन्म में कर्म उपासनादि साधन-संपन्न होकर ज्ञान प्राप्त करूँगा और मोक्ष का भागी बनूँगा। मुझसे पृथक अन्य लोग भी हैं जिनमें से कोई मुक्त हैं कोई बद्ध हैं।’

प्यारे ! अन्तःकरणरूपी गुफा में बैठकर इस प्रकार का विचार मत करना। क्योंकि यह सारा विश्व स्वप्नवत है जैसे क्षण भर से तुझको स्वप्न में विस्तीर्ण संसार दिख जाता है और उस क्षण के ही अन्दर तू अपना जन्मादि मान लेता है वैसे ही यह वर्त्तमान काल का जगत भी तेरा क्षण भर का ही प्रमाद है।

प्रिय आत्मन् ! न तेरा पहले जन्म था न वर्त्तमान में है और न आगे होगा। यदि क्षणमात्र के लिए अपने आसन से हटेगा, अपने आपको स्वरूप में स्थित न मानेगा, प्रमाद करेगा तो वही प्रमाद विस्तीर्ण जगत हो भासेगा। प्यारे ! तू अपने आपको मन, बुद्धि आदि के छोटे से आँगन में मत समझ। जैसे महान् समुद्र में छोटी बड़ी अनेक तरंगे पैदा और नष्ट होती रहती हैं वैसे ही अनंत अनंत मन, बुद्धि आदि तरंग तुझ महासागर में पैदा हो होकर नष्ट होती रहती हैं। मन बुद्धि की कल्पना ही संसार है। नहीं नहीं…. मन-बुद्धि ही संसार है। इनसे भिन्न संसार की सत्ता किंचित मात्र भी नहीं है। मन बुद्धि की भी अपनी अलग सत्ता नहीं है। तेरी ही सत्ता से मन बुद्धि भासते हैं। जैसे मरूभूमि में रेत ही जल होकर भासती है वैसे तू ही जगत होकर भास रहा है। जैसे रेत सदैव रेत ही है फिर भी दूर से जल नजर आता है वैसे ही तू चैतन्य आत्मा सदैव ज्यों का त्यों एकरस, निर्विकार, अखण्ड आनन्दघन है, परंतु मन-बुद्धि में से जगत होकर भासता है। देख, भाष्यकार स्वामी क्या कहते हैं !

मय्यखण्डसुखाम्योधे बहुधा विश्ववीचयः।

उत्पद्यन्ते विलीयन्ते मायामारूतविभ्रमात्।।

मुझ अखण्ड आनन्द स्वरूप आत्मारूपी सागर में मायारूपी पवन से, भ्रांति के कारण अनेक-अनेक विश्वरूपी तरंगे उत्पन्न हो रही हैं और विलीन हो रही हैं।

 

गृहस्थ जीवन की शोभा

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“संयोजक ने भूल से एक सच्ची बात कह दी। सचमुच, कस्तूरबा हमारी ‘माँ’ के समान ही हैं। मैं इनको आदर देता हूँ।”

महात्मा गाँधी और उनकी पत्नी कस्तूरा का दाम्पत्य-प्रेम विषय-वासना से प्रेरित न होकर एक आदर्श, विशुद्ध, निष्कपट प्रेम का जाज्वल्यमान उदाहरण था। वैसे प्रारम्भ में गाँधी जी भी कामविकार के मोह से अत्यंत प्रभावित थे। उन्होंने अपनी जीवनी में यह बात बड़ी सच्चाई से लिखी है कि अपने पिता की मृत्यु के समय भी वे अपनी पत्नी के साथ बिस्तर पर थे।

ऐसी स्थिति थी लेकिन उन्होंने अपने जीवन में कुछ आदर्श नियमों को स्थान दिया हुआ था। जैसे – नित्य सुबह शाम प्रार्थना करना, राम नाम का जप करना, श्रीमद् भगवद् गीता का अध्ययन  करना, हर सोमवार को मौन रखना आदि। जिससे उनका काम राम में बदला और निष्कामता का उनके जीवन में प्राकट्य हुआ। निष्कामता से क्षमताएँ विकसित होती है।

गांधी जी एवं उनकी पत्नी कस्तूरबा एक दूसरे को केवल शरीर-भोग की वस्तु नहीं मानते थे, बल्कि आत्मिक प्रेम के साथ एक-दूसरे का पूरा सम्भव करते थे।

एक बार महात्मा गाँधी एक सभा में शामिल होने के अपनी धर्मपत्नी कस्तूरबा के साथ श्री लंका गये। गाँधी जी कस्तूरबा को ‘बा’ कहकर बुलाते थे। गुजराती में ‘माँ’ को ‘बा’ बोलते हैं।

गाँधी जी द्वारा कस्तूरबा जी को ‘बा’ कहकर बुलाने के कारण सभा के संयोजक ने समझा कि महात्मा गाँधी के साथ इनकी माँ भी आयी हैं, इसलिए गाँधी जी का परिचय देते समय संयोजक ने सभा में कहाः “भाइयो एवं बहनों ! आप और हम भाग्य शाली हैं कि इस सभा में गाँधी जी तो आये ही हैं पर साथ में उनकी माँ भी आयी है।”

गाँधी जी के साथ जो अन्य लोग थे, वे शर्माये कि ‘अरर… हम लोगों ने इन्हें पहले नहीं बताया और इन्होंने यह क्या कह दिया !’ कस्तूरबा भी बड़ी शर्मायी पर गाँधी जी खूब हँसे। जब गाँधी जी बोलने के लिए खड़े हुए तो उन्होंने कहाः “संयोजक ने भूल से एक सच्ची बात कह दी। सचमुच, कस्तूरबा हमारी ‘माँ’ के समान ही हैं। मैं इनको आदर देता हूँ।”

‘मेरी पत्नी मेरे लिए क्या सोचेगी?’ ऐसा न सोचकर उनके हित की भावना को प्रधानता देने वाले गाँधी जी और ‘मेरे पति मेरे हित की भावना से ही ऐसा कह रहे हैं।’ इस प्रकार का विवेक तथा अपने पति के प्रति विशुद्ध, उत्कट प्रेम रखने वाली त्याग की प्रतिमूर्ति कस्तूरबा का दाम्पत्य जीवन सभी गृहस्थों के लिए एक उत्तम आदर्श प्रस्तुत करता है। पैसा और प्रसिद्धि के पीछे समाज को पथभ्रष्ट करने का जघन्य अपराध कर रहे फिल्मी अभिनेताओं व अभिनेत्रियों की नकल करके अपना दाम्पत्य जीवन तबाह करने की मूर्खता करने की बजाय हमारे भारतवासी उतना ही समय संत-महात्माओं की जीवनियाँ पढ़ने में लगायें तो कितना अच्छा होगा।

 

राम के दीवाने…

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जिनके पास ज्ञान की शलाका आ गई है, उनको रोम-रोम में रमनेवाले रामतत्त्व का अनुभव हो जाता है। वे राम के दीवाने हो जाते हैं। राम के दीवाने कैसे होते हैं?
राम के दीवानों को जग के सुख की चाह नहीं।
मुसीबतों के पहाड़ टूटे मुँह से निकलती आह नहीं।।
स्वामी रामतीर्थ बोलते थेः “हे भगवान ! आज मुसीबत भेजना भूल गये क्या? हम रोज ताजी मुसीबत चाहते हैं। आज कोई मुसीबत नहीं आयी?कोई प्रोब्लेम नहीं आया?”
रामतीर्थ के लिए कई कुप्रचार फैलाये जाते थे, कई अफवाहें चलती थीं। राम बादशाह तो ॐ….ॐ….ॐ….. आनन्द…. मैं ब्रह्म हूँ….’ इस प्रकार आत्मानंद में, ब्रह्मानंद में मस्त रहते, हँसते रहते, नाचते रहते। तथा कथित सयाने लोग उनकी आलोचना करते की ऐसा कोई संत होता है ? उन्माद हो गया है उन्माद। ऐसी चिट्ठियाँ भी लोग लिख देते थे।
स्वामी राम कहतेः
“मुझे सीख देने वाले ! मुझे तो भले उन्माद हो गया है लेकिन तुम्हें तो उन्माद नहीं हुआ है। जाओ, तुम्हें रमणियाँ बुलाती हैं। उनके हाड़ मांस तुम्हें बुला रहे हैं। जाओ, चाटो…. चूसो। मैं तो मेरे राम की मस्ती में हूँ। मुझे तो यही उन्माद काफी है। तुम भले रमणियों के उन्माद में खुशी मनाओ। लेकिन सावधान ! वह उन्माद बाबरा भूत है ! दिखता है अच्छा, सुन्दर, सुहाना लेकिन ज्यों ही आलिंगन किया तुरन्त सत्यानाश होगा। राम रस के उन्माद का अनुभव एक बार करके देखो, फिर जन्मों के उन्माद दूर हो जायेंगे।”
किसी ने रामतीर्थ को खत लिखा कि, “आपके निकटवर्ती शिष्य एन. एस. नारायण ने संन्यासी के वस्त्र उतार कर पेन्ट कोट पहन लिया, संन्यासी में से गृहस्थी हो गया ज्ञानी का शिष्य, साधु बना और फिर गुलाम बन गया, नौकरी करता है ! उसको जरा सुधारो।”
रामतीर्थ ने जवाब दियाः “राम बादशाह आप में ही समाता नहीं है। राम बादशाह कोई गङरिया नहीं है कि भेड़-बकरियों को सँभालता रहे। वह अपनी इच्छा से मेरे पास आया, अपनी मरजी से साधु बना, उसकी मरजी। सब सबकी सँभाले, राम बादशाह अपने आप में मस्त हैं।”
ज्ञानी को सब समेट लेने में कितनी देर लगती है? शिष्यों को सुधारने के लिए पाँच-दस बार परिश्रम कर लिया, अगर वे नहीं सुधरते तो जायें। ज्ञानी उपराम ही जाते हैं तो घाटा उन्हीं मूर्खों को पड़ेगा। ज्ञानी को क्या है? वैसे मूर्खों को हम आज नहीं जानते लेकिन स्वामी रामतीर्थ को लाखों लोग जानते हैं, करोड़ों लोग जानते हैं।
आप भी कृपा करके राम की मस्ती की ओर उन्मुख बनें। उन सौभाग्यशाली साधकों के अनुभव की ओर चलिए किः
राम के दीवानों को जग के सुख की चाह नहीं ।
मुसीबतों के पहाड़ टूटे मुँह से निकलती आह नहीं ।।

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