क्षण का भी प्रमाद मृत्यु है

bharti shri ji

हे चैतन्य देव ! तू इस विस्तृत जगत को दीर्घ काल से चला आता मत समझ। तू ऐसा ख्याल मत कर बैठना कि, ‘मेरा पूर्व जन्म था और वहाँ किये हुए पाप पुण्यों के फलस्वरूप यह वर्त्तमान जन्म हुआ है और इस वर्त्तमान जन्म में कर्म उपासनादि साधन-संपन्न होकर ज्ञान प्राप्त करूँगा और मोक्ष का भागी बनूँगा। मुझसे पृथक अन्य लोग भी हैं जिनमें से कोई मुक्त हैं कोई बद्ध हैं।’

प्यारे ! अन्तःकरणरूपी गुफा में बैठकर इस प्रकार का विचार मत करना। क्योंकि यह सारा विश्व स्वप्नवत है जैसे क्षण भर से तुझको स्वप्न में विस्तीर्ण संसार दिख जाता है और उस क्षण के ही अन्दर तू अपना जन्मादि मान लेता है वैसे ही यह वर्त्तमान काल का जगत भी तेरा क्षण भर का ही प्रमाद है।

प्रिय आत्मन् ! न तेरा पहले जन्म था न वर्त्तमान में है और न आगे होगा। यदि क्षणमात्र के लिए अपने आसन से हटेगा, अपने आपको स्वरूप में स्थित न मानेगा, प्रमाद करेगा तो वही प्रमाद विस्तीर्ण जगत हो भासेगा। प्यारे ! तू अपने आपको मन, बुद्धि आदि के छोटे से आँगन में मत समझ। जैसे महान् समुद्र में छोटी बड़ी अनेक तरंगे पैदा और नष्ट होती रहती हैं वैसे ही अनंत अनंत मन, बुद्धि आदि तरंग तुझ महासागर में पैदा हो होकर नष्ट होती रहती हैं। मन बुद्धि की कल्पना ही संसार है। नहीं नहीं…. मन-बुद्धि ही संसार है। इनसे भिन्न संसार की सत्ता किंचित मात्र भी नहीं है। मन बुद्धि की भी अपनी अलग सत्ता नहीं है। तेरी ही सत्ता से मन बुद्धि भासते हैं। जैसे मरूभूमि में रेत ही जल होकर भासती है वैसे तू ही जगत होकर भास रहा है। जैसे रेत सदैव रेत ही है फिर भी दूर से जल नजर आता है वैसे ही तू चैतन्य आत्मा सदैव ज्यों का त्यों एकरस, निर्विकार, अखण्ड आनन्दघन है, परंतु मन-बुद्धि में से जगत होकर भासता है। देख, भाष्यकार स्वामी क्या कहते हैं !

मय्यखण्डसुखाम्योधे बहुधा विश्ववीचयः।

उत्पद्यन्ते विलीयन्ते मायामारूतविभ्रमात्।।

मुझ अखण्ड आनन्द स्वरूप आत्मारूपी सागर में मायारूपी पवन से, भ्रांति के कारण अनेक-अनेक विश्वरूपी तरंगे उत्पन्न हो रही हैं और विलीन हो रही हैं।